Jan 3, 2015

वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार के होने का मतलब

अमित कुमार
(जीवन यात्रा-10 मई, 1945 से 13 दिसंबर, 2014)
वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार के होने का मतलब (जीवन यात्रा-10 मई, 1945 से 13 दिसंबर, 2014)
वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार के होने का मतलब
(जीवन यात्रा-10 मई, 1945 से 13 दिसंबर, 2014)
जब भारत आजादी के करीब पहुंच रहा था तो उसी दौरान अमरेंद्र कुमार का जन्म बिहार के सासाराम में हुआ। जब वे अपने पैरों पर खड़े हो कर चलना शुरू ही किए थे तो भारत स्वतंत्र देश बन चुका था। और स्वाभाविक तौर पर, उनमें स्वतंत्र खयाल कूट कूट कर भरा हुआ था। स्वतंत्र खयालों के होने की वज़ह से उन्होंने जिंदगी को अपनी तरह से जीया और परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं करने की उनकी जिद्द ने कई बार उनका माली नुकसान भी कराया। मगर, जो विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखते हैं, वे नफे नुकसान का कभी खयाल कहां रखते और ये सारी बातें उनके व्यवहारों और कार्यप्रणालियों में साफ देखने को मिलता था।
पत्रकार बनने की इच्छा तो उन्हेें बहुत बाद में पैदा हुई। उन्होंने तो बाकायदा काॅलेज में पढ़ाना लिखाना भी शुरू कर दिया था। मगर, जवाहर लाल नेहरू काॅलेज, डिहरी आॅन-सोन में साढ़े चार साल तक काम करने के बाद वह दायरा उन्हें छोटा लगने लगा और अपने ज्ञान और विज्ञान को प्रसार देने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को पेशे के तौर पर चुनने का ऐलान किया। रास्ता मुश्किलों भरा था, घर परिवार में विरोधी स्वर भी मुखर हुए, लेकिन अपनी मुखरता के लिए मशहूर अमरेंद्र जी ने पीछे मुड़ने से साफ मना कर दिया।
शुरूआत भी गजब तरीके से हुई। अपने दम पर अखबार निकालने का फैसला कोई हंसी ठट्ठा का काम तो था नहीं। मगर, जिनके इरादे बुलंद होते हैं वे नतीजों के बारे में पहले से विचार कहां करते, सो अपने ही तरह के विचारों से ओतप्रोत ‘जन बिक्रांत’ नाम के अखबार को निकालने का फैसला किया। ये उनकी प्रतिभा का ही असर था कि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद उनके अखबार का उद्घाटन करने के लिए तैयार हो गए। अखबार निकला और जब तक निकाला, ताल ठोंक कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराता रहा।
मगर, आर्थिक मुश्किलों का सामना ना तो जज्बातों से किया जाता है और ना विचारों से। अखबार निकलना बंद हो गया। अब रोजगार की नई समस्या खड़ी हो गई। मगर, अमरेंद्र जी इस बात से अच्छी तरह वाकि़फ थे कि जब एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा अपने आप खुल जाता है और खास कर तब जब आप में कुछ कर गुजरने का दमखम हो। हुआ भी वही, पटना से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित अखबार ‘आज’ के संपादक ने उन्हें मिलने का आमंत्रण भेजा और शुरू हो गई एक नई यात्रा। बतौर न्यूज एडिटर तक का सफर पूरा करने के बाद उन्होंने दिल्ली की ओर रूख किया और राष्ट्रीय अखबार ‘राष्ट्रीय सहारा’ के मुख्य पृष्ठ के इंचार्ज बना दिए गए।
बिहार के एक छोटे से जिले से अपना पत्रकारिता का करियर शुरू करने वाले अमरेंद्र जी की ये उन बड़ी उपलब्धियों में शामिल नहीं है जो उन्होंने बाद के दौर में इस क्षेत्र में अपनी लेखनी के जरिए योगदान दिया। ‘युग’ नाम का पाक्षिक पत्रिका उनके संपादकत्व में लंबे समय तक दिल्ली से प्रकाशित होता रहा। जब तक वे इस पत्रिका में रहे, पत्रिका युगांतकारी साबित हुई। इसके बाद उन्होंने वाईएमसीए में पत्रकारों को बनाने का फैसला किया। यहां पर नए-नए छात्रों से रूबरू होने के बाद पहली बार उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि नई पीढ़ी भाषा के स्तर पर काफी पिछड़ी हुई है और जब तक भाषा में सुधार नहीं होता, पत्रकारिता के मानक स्तर बिखर कर रह जाएंगे। सो, उन्होंने भाषा को बेहतर बनाने के लिए किताबें लिखनी शुरू कर दी। 21वीं सदी और हिंदी पत्रकारिता, पत्रकारिता के अश्वथामा (उपन्यास), हिंदी पत्रकारिता के अध्ययन अध्यापन में मील का पत्थर साबित हो रहा है। कई सारे अन्य किताबों में कस्बानामा (कथा रिपोर्ताज), कविता संग्रह कतरन, कहानी संग्रह-यहां वहां, व्यंग्य संग्रह-दूसरों के जरिए, जो है सो, सुन मेरे बंधु रे, अक्षरों की मछलियां (कहानी संग्रह), लड़की देखेंगे (नाटक) शामिल हंै। इन सब मुश्किल कामों को पूरा करते हुए भी वे पत्रकारिता से कभी खुद को अलग नहीं रख सके और व्यस्तताओं के बावजूद उनके स्वतंत्र लेखन का काम अनवरत चलता रहा। तब भी, जब उनके स्वास्थ्य ने उनका साथ देना छोड़ दिया था। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से पंजा लड़ाते हुए उन्होंने पत्रकार की तरह जीना नहीं छोड़ा। लिखते रहे और बस, लिखते ही रहे। यही तो खयाल था, जो उन्हें स्वतंत्र खयालों वाला बनाए हुए था।
अब, वे हमारे बीच सशरीर नहीं हैं। मगर, उनके शब्द, उनके ज्ञान, उनकी प्रेरणा स्त्रोत बातें, उनके साथ बिताए लंबा वक़्त, उनकी यादें, उनकी बातें-सब कुछ जेहन में रचा बसा हुआ है। उनकी खामोशी सालती जरूर है मगर, उनकी यादें, उनके होने का हर पल ये अहसास कराती है कि जैसे वे कह रहें हों कि जला तो सिर्फ शरीर ही है। शरीर का जल जाना एक क्रिया मात्र है। जीवन यहीं खत्म नहीं होती। आज भी हम साथ साथ हैं।

Nov 16, 2013

शुक्रिया सचिन


125 करोड़ लोगों के लिए अब वो सबेरा कभी नहीं होगा जिसका इंतजार करने का आदी रहा है ये देश। सचिन के सपनो को साकार होते देखना जिस देश के लोगो की फितरत रही है, उस देश मंे अब सचिन के बिना ही सपने को साकार होते देखने की उम्मीद करना कैसा होगा, इसका कल्पना इस देश के लोग आज तो कतई नहीं कर पा रहे है।आखिर जिस देश में सपने का मतबल सचिन का सपना रहा है, उस देश में सचिन के न होने का मतलब क्या होगा, इसका एहसास तो मुम्बई के बानखेड़े से शुरू हो चुका है।क्रिकेट के मैदान पर आखिरी बार बतौर भारतीय कैप पहने तंेदूलकर के हाथो में भले ही तिरंगा लहरा रहा था, लेकिन इस तिरंगे को थामने का दिल न तो सचिन का था और न ही देश के 125 करोड़ लोगो का। तिरंगा थामने का मतलब अगर सचिन का मैदान से हमेशा के लिए विदाई होता है, तेा यह देश सचिन के हाथोे को कभी तिरंगा थामते नहीं देखना चाहेगा?

इस देश मंे तंेदूलकर होने का मतलब सिर्फ क्रिकेटर होना भर नहीं है। तंेदूलकर का मतलब उस भगवान से है जो उसके सपने को साकार करता है, उसके लिए जीता है। आनंद की हर उस अनुभूति से साक्षात्कार करवाता है, जिसकी कल्पना करके ही शरीर का रोम रोम रोमांच से भर उठता है।रोमांच की प्रकाष्ठा की सुखद अनुभूति क्या होती है, इस देश ने सचिन के जरिये जाना भी और जिया भी। वो भी पूरे 24 साल। 24 साल के इस सफर के बाद जब सचिन ने खुद इस पर विराम लगाने का फैसला बानखेड़े पर किया, तो इसका भरोसा न तो सचिन को हो रहा है और ना ही इस देश को।

आखिर हो भी क्यों ना! इस देश की नब्बे फीसदी आवादी ने महात्मा गांधी की ताकत को किताबे के जरिये जाना, उसी देश ने सचिन के कमाल को बल्ले के जरिये क्रिकेट के मैदान पर साकार होते देखा और वो भी नग्न आंखो से। आज सचिन की लोकप्रियता केे आगे गांधी का आभामंडल अगर छोटा दिखाई पड़ रहा है, तो सिर्फ इसलिए कि सचिन ने भी गांधी की तरह सियासत और उसके आस पास रहने के बावजूद उससे दूरी बना कर चलने का काम किया। आजाद भारत को एक अक्स की तालाश बरसो से थी, जिसके जरिये वो अपने जिंदगी को जीने का आदी हो और ये तलाश 15 नवम्बर 1989 को कराची मंे पुरा हुआ, जब सचिन रमेश तेंदूलकर ने कराची के मैदान पहली बार कदम रखा तो यह देशवासियो के लिए दोहरी खुशी का मोैका साबित हुआ। दुश्मन देश को उसके ही घर मंे मात देने वाला अवतार मिल गया और जिस आइकाॅन की तलाश में भारतवासी 42 साल से भटक रहे थे, वो भी पुरा हो गया। फिर क्या था सचिन का सपना खुद का सपना कभी नहीं रहा, उनके सपने को ही इस देश ने अपना सपना माना और मैदान दर मैदान सचिन की शोहरत बढ़ती गई। काबलियत निखरता गया। और देश पांच फुट 5 इंच के इस खिलाड़ी के पीछे भागता रहा। दिन, दिन न रहा और रात, रात न रही। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैैंड में मैच तड़के सुबह शुरू हो जाता तो देश भी जाग जाता, सचिन के लिए।

सचिन दुनिया के जिस मैदान पर जाते, भारत का तिरंगा उॅचा रखने के लिए खुद इसे मस्तक से लगा कर रखते, ताकि इस देश को अलग पहचान मिल सके। और हुआ भी यही। सचिन के जरिये भारत की पहचान दुनिया भर मंे बनी। उतनी जितनी की महात्मा गांधी और नेहरू के जरिये नहीं बन पायी। आज दुनिया की तीन चैथाई आबादी भारत का नाम सिर्फ इसलिए जानती है, क्योंकि सचिन हमारे हंै।

एक क्रिकेटर होेने के नाते सचिन से तो बस एक ही उम्मीद की जानी चाहिए थी कि वो मैदान पर चैके और छक्के लगाये। लेकिन, हम इससे बढ़कर उनसे उम्मीद पालने लगे। वो हमारी भावना की अभिव्यक्ति बन गए। फिर हमारी निगाहो ने उन्हें सिर्फ बल्लेबाजी तक सिमटने नहीं दिया। फिल्डिंग से लेकर बाॅलिंग तक मंे हम सिर्फ और सिर्फ सचिन का ही जलबा देखने को आतुर हो गए। विकेट से लेकर कैच तक अगर कोई और लेता, तो दिल को वो सुकून नहीं मिलता जो सचिन के जरिये पुरा होता। रही बात बल्लेबाजी की, तो वो इसी के लिए ही बने थे। सेा, जब जब, वो मैदान पर बल्ला लेकर उतरे तो दुनिया की तीन चैथाई आबादी की सांसे एक झटके मंे रूक जाती। इस इंतजार मंे कि पता नहीं क्या होगा! कई बार वो लोगो की उम्मीद को परवान चढ़ा कर वापस लोैट जाते, तो कई बार मंजिल पार भी लगा देते, तो कई बार यह काम दूसरे बल्लेबाजो पर छोड़ जाते। लेकिन, लोग तो मास्टर के जरिये ही विरोधियो को पस्त होने देखना चाहते थे। उनके खेलने के दौरान सांस कितनी बार रूक जाती, तो कितनी बार खुद को यह अहसास कराना मुश्किल होता कि हम है भी या नहीं। यहंा ‘‘है भी या नहीं’’ का मतलब सचिन के आउट होने के बाद जिंदगी और मौत से है। कुछ देर बाद ही पता चलता, कि सांस तो है, लेकिन, आस खत्म हो गयी है।

16 नवम्बर 2013 के बाद भी क्रिकेट के मैदान पर चैको और छक्को की वारिश होगी। लेकिन, लोगों की जिदंगी में वो कौतूहल अब कभी नहीं होगा जो उनके होने के एहसास भर से रोम रोम मंे होता था। अब, क्रिकेट, एक खेल होगा जिसमें जय और पराजय होगी। जिसमें जज्वात नहीं होगा, बस, एक खेल होगा और देश इस उम्मीद के साथ, इसलिए देखता रहेगा कि इस खेल को कभी तंेदूलकर ने खेला था, तो इसे यूं ही कैसे अलविदा कहे। सचिन के नाम भर होने के एहसास से क्रिकेट खिलाडि़यों के बारे न्यारे तो होंगे लेकिन सचिन का सफर अब खत्म हो गया है, क्योंकि नायक शोक के सागर में देशवासियों को  डूबो कर नये मंजिल की तलाश मंे निकल गए है।


आज देश फिर से उसी चैड़ाहे पर आ खड़ा हुआ है जहां 1948 मंे महात्मा गांधी की मौॅत के बाद नायक की तलाश मंे भटक रहा था और आज नायक के होने के बाद भी उसके न होने के फैसले से आ खड़ा हुआ है। 15 नवम्बर 2013 के बाद अब फिर से एक नायक की तलाश मंे देश निकल चुका है।यह तलाश कब पुरा होगा, कहां पुरा होगा, कैसे पुरा होगा, इसका खाका आने वाले कई महीनो तक टीवी चैनलो पर गर्मागर्म बहस का मुद्दा होगा। इन सबके बीच शून्यता में महानायक की तलाश जारी रहेगी जिसमंे देश सचिन के अक्स को ही तलाशेगा। इससे कम और इससे ज्यादा देशवासियो को कतई मंजूर नहीं होगा ।मतलब यह कि शून्य का सफर यहां से शुरू हो चुका है जिसकी न तो मंजिल पता है और न ही रास्ते का। हम भी चाहते है कि इस देश को नायक मिले जो कम से कम सचिन के आभामंडल से मेल खाता हो। अगर इसमें कामयाब रहे, तो एक बार फिर हमें जिदंगी जीने का मकसद मिल जायेगा ।










Mar 17, 2012

खेल से बड़ा खिलाड़ी


सचिन तेंदुलकर के जरिये दुनिया ने यह देखा कि किस तरह खेल से बड़ा खिलाड़ी होता है।अब तक दुनिया यही जानती थी कि खेल के जरिये खिलाड़ी की पहचान बनती है।और हम दुनिया से अलग तो नहीं है ।बात चाहे सुनील मनोहर गवास्कर की हो या फिर कपिल देव की। ध्यानचंद की हो या फिर डियागो मारेडोना की।इनकी लोकप्रियता का गा्रफ हाकी और फुटबाॅल के जरिये आगे बढ़ा और बढ़ता ही गया।लेकिन जब हम बात सचिन रमेश तंेुदलकर की करते है तो यही पर आकर यह पुरी बात बेमानी हेा जाती है।मौजूदा दौर में क्रिकेट के जरिये सचिन की पहचान नहीं है बल्कि सचिन के जरिये आज क्रिकेट पुरी दुनिया में अपनी डंका पीट रहा है।सचिन की सौेवे शतक का जुनून इस देश में इस कदर रहा कि हम बंग्लादेश से हार को तो बिना झिझक पचा लिए। वेा इसलिए कि इस मैच में मास्टर ने शतक जो लगाया।जिस मुल्क को दुनिया के नक्शे पर भारत ने लाया वही मुल्क से मात खाकर भी इस गम को सीने में छुपा लिए कि चलो सचिन ने इसमें शतक तेा लगाया।आज भारतीयों के लिए जीत और हार से बड़ा सचिन बन गए है।

लेकिन सचिन बनना और सचिन बनकर जीना कितना मुश्किल भरा डगर है इसका एहसास सचिन के ही उस बयान से लगाया जा सकता है। जिसमें सचिन ने बांग्लादेश के मीरपुर में सौवा शतक जड़ने के बाद कहा कि ‘‘मेरा वजन 50 किलो हल्का हो गया है।’’तो क्या अब सचिन का स्वाभाविक वजन महज 18 किलो बचा हेै। ऐसा बिल्कुल नहीं है।यह वो वजन था जो सचिन पिछले 22 साल से दुनिया के जिस मैदान में जाते थे, वो लेकर जाते थे।यह वजन था 100 करोड़ से ज्यादा लोगों की भावनाओं और उम्मीद का। जिसे सचिन ने बंग्लादेश की घरती पर जाकर उतारा।यह किसी बड़े खिलाड़ी का आखिरी मंजिल हो सकता है। लेकिन तेेंदुलकर के लिए यह महज एक पराव है।यानी अभी चलते ही रहना है।भारतीयो कीे उम्मीद और भावनाओ के बोझ को महज 24 घंटे के लिए विश्राम दिया है।इसे अंजाम तक पहुंचाना तो अभी बाकी है।

एक दौर था जब सुनील मनोहर गवास्कर क्रिकेट से 1988 में रियाटर हो चुके थे और भारत बड़ी बेसब्री से गवास्कर की परछाई को तलाश रहा था।जब भी कोई नया क्रिकेटर मैदान में उतरता तो उसमें गवास्कर के अक्स को देखने के लिए भारतीयों की नजरे उसपर टिक जाती ।लेकिन कामयाबी नहीं मिली।देश गवास्कर के विकल्प की तलाश में था लेकिन भारतीयों को क्या मालूम था कि इस कमी को पुरा करने के लिए खुद भगवान मैदान में उतरने का फैसला कर चुके है। ज्यादा वक्त नहीं बिता 15 नवम्बर 1989 को सचिन के रूप में 16 साल का लड़का कराची के मैदान में अवतरित हुआ।पहले और दूसरे मैच में नाकामी के बाद दुनिया के सामने 16 साल के इसी लड़के में क्रिकेट के प्रशंसको को कुछ उम्मीद दिखी।जिसके जरिये भारत में क्रिकेट की परम्परा आगे बढ़ सकती है।लेकिन बितते वक्क के साथ दुनिया 22 गज के धेरे में एक के बाद एक चमत्कार का गवाह बनता चला गया।जिस मुल्क में क्रिकेंट को जानने और समझने वाले लोगो की तादाद सैकड़ो में नहीं थी वहंा क्रिकेट नये सिरे से परवान चढ़ने लगा।आज भी कई ऐसे देश है जहां क्रिकेट से लोगों का सरोकार नहीं है वहां भी सचिन से लोगों का सरोकार है।यानी सचिन का मतलब इस दौर में क्रिकेट हो गया है। सचिन के जरिये दुनिया क्रिकेट को देखने व समझने के लिए पावरे पलक बिछा रही है।

ऐसे में हम हार पर कब तक आंसू बहाए, जीत पर कब तक जश्न मनाये ।इसलिए दुनिया की एक चैथाई आवादी ने यह फैसला किया कि सचिन के बल्ले की थाप पर जश्न मनाइगें और सचिन की हार को अपनी किस्मत समझ कर गले लगाइगें।यह सिलसिला जारी है... तब तक, जब तक सचिन मैदान पर है।

Nov 24, 2011

मंहगाई की मार का शिकार बने पवार


देष की 125 करोड़ आवाम महंगााई की मार झेलने पर विवश है।लेकिन इसका एहसास अगर किसी को नहीं है तो वो है हमारे सियासत दान।यही वो लोग है जिनकी नीति और करनी की कीमत आवाम को मंहगाई के रूप में चुकानी पड़ रही हैं।लेकिन इससे बेखबर लोकतंत्रातिक सरकार चलाने का दंभ भरने वाली मनमोहन सरकार लोकतंत्र के नाम पर लोगों की भावना से ही खिलवाड़ कर रही है।हालात इस कदर बेकाबू हो चला है कि आम आदमी भूख से भर रहा है तो मनमोहन सरकार के मंत्री इससे निपटने की बजाए हर दिन मंहगाई का तरका लगाने में जुटे हेै।नतीजा बडबोले कृशि मंत्री षरद पवार को एक नौजवान के गुस्से का आज दिल्ली में शिकार होना पड़ा।मंत्री महोदय जब मीडिया से बात करके आगे जैसे ही बढ़े हरबिंदर सिंह का नाम के शख्स ने जोरदार चांटा जड़ दिया।फिर क्या था एक के बाद एक नेता पवार के वचाव में आगे आ गए और इसकी निंदा करने लगे।लेकिन हकीकत यह है कि इस घटना के दोहराने का डर सभी नेताओं को सताने लगा हैं।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस तरह की घटना को स्वीकार कतई नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता है कि मुल्क की जनता मुसीबत में हो और उनके नुमांइदे उसी आवाम से मुहमोड़ ले।तो ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लेाकतांत्रिक देश की लोेकतांत्रिक प्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी हैैं।आज अगर देश की लेाकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े हो रहे है तेा इसकी वजह भी हैै।समाजसेवी अन्ना हजारे उसी जनता के जरिये उस सरकार के लिए मुसबीत बने हुए है जिनकी नुमांइदगी मनमोहन सिंह की सरकार कर रही है।जिसकी बागडोर भले ही मनमोहन सिंह के हाथो में है लेकिन सत्ता सोनिया गांधी के इर्द गिर्द घुम रहा है।कायदे से मुल्क की जनता को अपनी मुसीबत सरकार के जरिये हल करने की उम्मीद करनी चाहिए थी। आज वही लोग अन्ना हजारे के जरिये सरकार को ही नहीं , पुरे राजनीतिक व्यवस्था को सबक सिखाने के मुड में है।इसका प्रदर्षन रामलीला मैदान के जरिये पुरी दुनिया ने देखा है।यानी व्यवस्था के अंदर किस तरह व्यवस्था को बदला जा सकता है ये अन्ना हजारे ने लोगों को रास्ता दिखा दिया है।वो भी हिंसा के जरिये नहीं, अहिंसा के जरिये।अन्ना, आज के दौर के महात्मा गांधी है क्योेंकि देश की आधी आवादी ने तो महात्मा गांधी को नहीं, अन्ना को आंदोलन करते देखा है।जिस हथियार का इस्तेमाल कर अन्ना मनमोहन सरकार की चुल हिला रहे है इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी ने अंग्रेजो पर किया तो दुनिया के लिए अहिंसा का प्रतीक बन गए ।अन्ना इसी को नये सिरे से आगे बढ़ा रहे है।
लेनिक अब मामला ज्यादा खतरनाक मोड़ अख्तियार कर रहा है।लोगांे का धैर्य अब जवाब दे रहा है।भाईभतीजावाद से त्रस्त इस मुल्क में मंहगाई ने जिस तरह आमआदमी का कमर तोडा है इसका रूप इस तरह सामने आयेगा, ये न तेा मराठा छत्रप श रद पवार ने सोचा होगा और न ही महान अ़र्थषास्त्री का तमगा लेकर घुमने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने।शायद आज की घटना मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्र की नीति को नये सिरे से समझने के लिए विवश करे।सोचने का वक्त अब राजनेताओं को हैं।




Aug 4, 2011

भ्रष्टाचार को मुद्दा क्यों माने?



देश भ्रष्टाचार के आकंठ में डुबा है ।और इसकी गंगोत्री कही और से नहीं,सीधे सीधे सत्ता के शिखर से बह रही है।फिर भी देश के 125 करोड़ लोगों के नुमाइंदे होने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए यह मसला ही नहीं है।जब प्रधानमंत्री के लिए यह मसला ही नहीं है तो भला सत्ता का सुख भोगने में जुटी कांग्रेस पार्टी को इसे लेकर चिंता क्यो होने लगे।आलम यह है कि केन्द्र सरकार के एक या दो मंत्री पर नहीं, दर्जन भर मंत्री पर तो रोज धपले ओर घोटाले के आरोप सामने आ रहे है।लेकिन मनमोहन सिंह की खामोशी है कि टूटने का नाम ही नहीं ले रही।

सीएजी की हालिया रिपोर्ट जिसमें काॅमनवेल्थ गेम में घोटाले को लेकर सीघे सीघे प्रधानमंत्री आॅफिस के शामिल होने की बात की गई है। 12 साल से सत्ता का सुख भोग रही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की गर्दन फंस रही है।लेकिन इससे परे प्रधानमंत्री खुद खामोश रहने में ही अपनी भलाई समझ रहे है।

ऐसा भी नहीं है कि हमारे प्रधानमंत्री जी भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर नहीं है और इसे जड़ से मिटा नहीं सकते ।लेकिन इनकी मजबूरी यही है कि सत्ता के शीर्ष पर विराजामन रहने के बावजूद न तो इस पर कार्रवाई करने का उनको अधिकार हासिल है और ना ही इस मसले पर ईमानदारी से मुंह खोलने का आदेश। हां खानापुर्ति के लिए शुंगलु कमेटी की सिफारिश को लागु करने की बात वेा जरूर कर रहे है लेकिन खुद के बनाए कमेटी की रिर्पोट केा लागु करने में भी ये लाचार और विवश क्यों है ये तो पूरा देश जान रहा है।

भ्रष्टाचार को प्रश्रय कहां से मिल रहा है और कौन सत्ता केा सीघे सीघे संचालित कर रहा है यह भी किसी से छुपी नहीं है।लेकिन सब कुछ जानते हुए भी हमारे प्रधानमंत्री जी अपनी मजबूरी केा आम आदमी के सामने रखने की वजाए बस खुद केा पाक साफ बताने में लगे है।भला मनमोहन सिंह के पाक साफ होने और दिखने में तो किसी को आपति है ही नहीं। विवाद तो इस बात का है कि आखिर उस पाप को वो क्यों ढ़ो रहे है जो उन्होंने किया ही नहीं।

देश एक छद्म प्रधानमंत्री के सहारे चलाया जा रहा है और सत्ता का मजा कोई और उठा रहा है।लेकिन कीमत मनमोहन सिंह के जरिये तय हो रही है।नुकसान मनमोहन सिंह का और फायदा राहुल गांधी और सोनिया गांधी का।राजनीति इस देश में किस तर्ज पर 2004 के बाद बढ़ रही है उसका एक बानगी भर है।

कायदे से किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार की कमजोरी को उजागर करने और उसका फायदा उटाने का काम विपक्ष का होता है। लेकिन जब विरोधी पार्टी खुद की मुसीबतांे से ही नहीं उबर पा रही है ओैर खुद भी कुछ इसी तरह के कारनामों में शामिल हो, तो भला उम्मीद किया जाए तो किससे। बस वो तो इस ताक में बैठे है कि काश हमें भी इसी तरह का मौका मिलता। जहंा मिला हुआ है वहां यूपीए 2 की तरह लुट खसोट मची है। ऐसे में आम आदमी को लेकर आगे बढ़े तो कौन ?

जहंा तक रही हमारे मनमोहन सिंह की बात तो वो करे तो क्या करे। हटाने और रखने का अघिकार उनके पास हो तब ना! इस अधिकार से तो वो पहले ही दिन से ही मुक्त है। 2जी जैसे बड़े घोटाले सामने आने के बाद सरकार यह बताने में जुटी रही की इसमें घोटाला हुआ ही नहीं है। लेकिन सुप्रीम केार्ट की वजह से इसमें शामिल लोग आज हवालात की हवा खा रहे है। बात चाहे ए राजा की हो या फिर काॅर्पोरेट घराने के बड़े बड़े दिग्गजो ंकी। सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से आने वाले दिनों में जेल के सलाखो के पीछें पहुंचने वाले नेताओं की फेहरिस्त लंबी हो सकती है।और यह भी मुमकिन है कि इसमें मनमोहन सिंह मंत्रीमंडल के कई नवरत्न राजा के साथ हवालात की हवा खाते दिखे।







Aug 3, 2011

हार पर हाहाकार क्यों?



टीम इंडिया की नाॅटिंघम में इंग्लैंड के हाथों बुरी तरह लुटने पीटने के बाद टीम के प्रशंसक सदमें है।ऐसा मानों जैसे पहली बार टीम इंडिया ने देश की ताज और लाज को मटियामेंट कर दिया हो। भला हो हमारे क्रिकेट प्रशंसको का, जो टीम के हार से इनते तिलमिलायें हुए है। अरे भाई ! कोई पहली बार तो हम हारे नहीं हैं जो आपलोग इतने गुस्से में है।

जनाब सुनील मनोहर गवास्कर साहब को रातो रात भारतीय क्रिकेट टीम मंे चैंपियन वाले जलवे नहीं दिख रहे। अब गवास्कर साहब करे भी तो क्या करे।उनकी रोजी रोटी तो कमेंट्री के जरिये चलती है।वो अपने क्रिकेट कैरियर में उतने पैसे नहीं कमाये जिनते आजकल कमेंट्री के जरिये कमा रहे है। तो वो टीम की अलोचना न करे तो करे क्या। अब गवास्कर साहब को कोई याद तो दिलाये कि जब आप खेलते थे, तो कौन सा देश की शान में चार चांद लगा दिये थे।आपकी टीम कहां आस्ट्रेलिया की बादशाहत को चुनौती दे पायी। और रही मौजूदा टीम की बात तो घर में जीत के दम पर ही सही कमसे कम आस्ट्रेलिया से उॅपर अपने नाक को साल भर तो रखा ! क्या यही कम है।

अरे भाई टीम की हार पर धडि़याली आंसू क्यों। भाई आपन की टीम के हारने का लंबा चैड़ा रिकार्ड है। हम कही जीते ही नहीं है। अपन तो हारने के लिए ही खेलते है। काहे गुस्सा हो रहे है मै आपको पुरा ब्योरा देता हुं। हम बस जीते है तो जिम्बाबें में, बंग्लादेश में और हां हाल ही में बेस्टइंडीज में वो भी पुरे तीन में से एक मैच जीते है जनाब! श्रीलंका पर श्रीलंका में पिछले 17 साल में फतह नहीं कर पाए है।रही बात आस्ट्रेलिया की तो, आस्ट्रेलिया में तो अब तक सीरीज जीते ही है नहीं है।यही हाल हमारा दक्षिण अफ्रीका में है। यहंा भी हम कोई सीरीज नहीं जीते है। हां, ये अलग बात है कि एक्का दुक्का मैच दक्षिण अफ्रीका की मेहरबानी से हम जरूर जीते है।

इंग्लैड में तो पिछली बार 2-0 से 1986 में जीते थे यानी पुरे 25 साल पहले। ये तो रिकार्ड है और रिकार्ड पर कोई आंच आए ये टीम इंडिया को कतई गवारा नहीं है। रिकार्ड तो रिकार्ड ठहरा, उसको क्यों तोड़े और वो भी अपने देशवासियों के खातिर ! भाई सवाल ही नहीं है।हमारी टीम तो पैसे के लिए खेलती है और टीम की हार हेा या फिर जीत, पैसा केाई धटता बढ़ता थोड़े ना है। ऐसे भी हमारा क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे धनवान बोर्ड ठहरा । हार से हमारी औकात में कोई कमी थोड़े ना आ जायेगी।

तो आप क्रिकेट देखिये ये सोचकर कि यह महज खेल है और हार जीत से खेल पर कोई असर ना हो। और अपनी टीम का सर्पोट करते जाइये, क्योंकि हमारे टीम में सचिन जैसे महान खिलाड़ी जो है। और अभी तो उनके बल्ले से महाशतक आना बाकी है। तो जीत और हार से परे सचिन के महाशतक का इंतजार कीजिए!



Aug 1, 2011

खतरे में टीम इंडिया का ताज और लाज



टीम इंडिया नाॅटिंधम में हार के कगार पर खड़ी है, वो भी पहली पारी में बढ़त लेने के बाद । ऐसे में टीम इंडिया की करनी और धरनी दोनो पर सवाल उठ रहे है तो इसमें गलत क्या है! जिस पीच पर पहली पारी में इंग्लिश बल्लेबाज धुटने टेक दिए, वही खिलाड़ी दूसरी पारी में भारतीय टीम के पसीने छुड़ा रहे है।टीम इंडिया की हालात कितनी पतली है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि अंग्रेजों ने तीसरे दिन 417 रन ठोक डाले और वो भी उस पीच पर जिस पर रन बनाना मुश्किल लग रहा था।दरअसल जीती हुयी बाजी को हार में बदलने का तौर तरीका अगर किसी को सिखना हो तो, कोई धौनी के धुरंधर से सीखे। जो टीम पहले दो दिनों तक अंग्रजो पर भारी पर रही थी, वही टीम अपनी करनी की वजह से हार के चैराहे पर खड़ी है।

इसके लिए जितने बड़े अपराधी हमारे गंेदबाज है उससे कम हमारे बल्लेबाज नहीं है।बात पहले गेंदबाजों की कर ले। पहली पारी में इंग्लिश बल्लेबाज कैसे भारतीय गंेदबाजों के पल्ले पड़ बैठे, ये तो खुद भी हमारे गंेदबाजों केा भी भरोसा नहीं हो रहा था।अब गलती तो गलती ठहरी, और इसे बार बार तो दुहराया नहीं जा सकता, सो रही सही कसर इस इनिंग में अंग्रेजों ने निकाल दी। कहां गए श्रीशांत के स्पीड और इशांत के स्विंग । प्रवीण कुमार का तो कहना ही क्या, अच्छा लाईन लेंथ होने के बावजूद रतार ऐसी की, कोई भी बच्चा उनके गेदों पर चैके और छक्के बरसा सकता है।जिस पर नहीं पड़ रहे उसे बल्लेबाजों का रहमोकरम मानिये। भज्जी केा तो देश के लिए खेलने से ज्यादा मजा शराब के कारोबार में दुनिया के कई देशों में दखल रखने वाले विजय माल्या से पंगा लेना में आता है।

अपने बल्लेबाजी का तो कहना ही क्या। मौजूदा पीढ़ी जब से बड़ी हुयी यही सुनती आ रही है कि भारतीय बल्लेवाजी तो दुनिया की सबसे मजबूत बल्लेवाजी है।लेकिन पता नहीं क्रिकेट के धुरंधर किस खुशफहमी के शिकार होकर हमारे महान खिलाडि़यों केा सर्वश्रेष्ठ के तमगे से नवाजती है! पिछले 25 सालो में हम इंग्लैंड को इंग्लैंड में नहीं हरा पाए है।तकरीबन यही हाल आस्ट्रेलिया से लेकर न्यूजीलैंड और दझिण अफ्रीका तक है। ऐसे में हम भारतवासी किस खुशफहमी में अपने सचिन,द्रविड़,लक्ष्मण ,सहवाग और धौनी केा बड़ा खिलाड़ी मान बैठे! इसका जबाव तो हमे ही देना पडेगा।जिस आस्ट्रेलिया केा नंबर वन की ताज से बेदखल होने में एक या दो साल नहीं, पुरा एक दशक लग गया।लेकिन हम है कि यह ताज साल भर से ज्यादा नहीं सहेज पाए।साल भर इसलिए बरकरार रहा कि हम अच्छा खेले, बल्कि इसलिए कि विरोधी टीम का प्रर्दशन इस दौरान अच्छा नहीं रहा।

जिस तरह अंग्रेज हमे एक मैच में पीटने के बाद खुद को स्वधोषित नंबर वन बन बैठे इसके लिए वो कम और हम ज्यादा जिम्मंेंदार है। जो इतनें सालों के नाकामी के बाद भी 125 करोड़ लोगों के सर से धौनी के धुरंघर के प्रति कायम खुमारपन उतरनें का नाम नहीं ले रहा।भला हो हमारी टीम इंडिया और धौनी का!


Jul 25, 2011

नैतिकता की सियासत

सियासत में केाई किसी का दोस्त नहीं होता और ना ही किसी का कोई दुश्मन होता है।बस वक्त के हिसाब से सियासी दोस्त और दुश्मन तात्कालिक रूप से तय किये जाते है।तभी तो खुद केा समाजवाद के सबसे बड़े पैरोकार मानने वाले मुलायम सिंह यादव के लिए अमर सिंह इनते बेगाने हो गए कि उनके नाम से ही उन्हें नफरत हो गई।पार्टी से रूकसत किया सो अलग।लेकिन सियासत की मजबूरी देखिये की अचानक मुलायम सिंह का अमर प्रेम फिर से जाग गया है।वेा भी इसलिए कि ‘‘नोट के बदले वोट’’ के मामले में अमर सिंह के साथ समाजवादी पार्टी के एक सांसद महोदय पर भी तलवार लटक रही है। ऐेेसे में समाजवादी लीडर का मुलायम होना तो बनता ही है।
वाक्या अगर मुलायम की सियासत तक सीमित रहता तो ना! लेकिन इसमंे तो हर पार्टी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुटी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदुरप्पा भले ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबे है ।लेकिन बीजेपी केा इसमें कोई बुराई नजर नहीं आ रही।यह अलग बात हेै कि कांग्रेस से बतौर नैतिकता के आधार पर हर दिन बीजेपी प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री से इस्तीफा जरूर मंाग रही है।भला नैतिकता की धुट्टी इनती सस्ती हेाती तो हमारे नेता राजनीति मंे आते ही क्यों ।राजनीति करते ही क्यों! राजनीति तो आम आदमी की भलाई के लिए की जा रही है।और इससे बढि़या आम आदमी का भला क्या हेा सकता है कि आम आदमी के नाम पर, आम आदमी केा मिलने वाले घन को, आम आदमी की तरह लुट लिया जाये।सो इस काम में हर पार्टी के नेता लगे है।बस मामला कम और ज्यादा का है।जिसको हिस्सेदारी कम मिल रही है वो दूसरे पर आरोप लगाकर नैतिकता की याद दिला रहा है। रही बात नैतिकता की तो बाजार में किलो के भाव अगर बिकता तो क्विंटल के हिसाब से खरीदकर हमारे जननेता आम आदमी कें बाट भी देतें।
इसके खरीददार के तौर पर हमारे नीतिश कुमार जी सबसे पहले होते।क्योकि उन्होंने सियासत ही नैतिकता के आधार पर किया।लेकिन जब नैतिकता की पोल खुली तेा फिर खुद दूसरे लीडरों की तरह नैतिकता का प्रसाद लेने से इनकार कर दिया। तो अगली बार हम औेर आप जब किसी को नैतिकता की याद दिलाए तेा सबसे पहले ये देख ले, कि इससे फायदा या नुकसान खुद का कितना हेा रहा है।तभी तो हम नैतिकता की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़गें।

Jul 22, 2011

क्या राहुल बिगाड़ पाएंगे ‘‘माया’’ का खेल




उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सियासी जमीन तैयार करने में जुटे राहुल गांधी कितने सफल हो पाएंगे? माया और राहुल के दलित प्रेम पर नुरा कुश्ती तो लंबे समय से चल रही थी, जिसमें कभी राहुल आगेे निकलते रहे है, तो कभी मायावती। राहुल के दलित प्रेम का माखौल उडाकर खुद को विजेता साबित करने का वो कोई मौका नही गवाया। लेकिन जिस तरह से पिछले दिनों राहुल गांधी ने पहले पदयात्रा करके तो दूसरी तरफ अलीगढ़ में किसानों की महापंचायत कर कांग्रेसी युवराज ने दलित वोट बैंक के साथ किसानों के वेाट पर बट्टा लगाने में जुटे है।लेकिन राज्य में चुनाव के अभी 7 महीने से ज्यादा का वक्त वाकी है। इसमें देखना यह दिलचस्प होगा कि राहुल गांधी मायावती का कितना खेल बिगाड़ पाते है।

देश के कंेद्रीय सत्ता में खास दखल रखने वाले इस राज्य की राजनीतिक तापमान आज कल लखनऊ से दिल्ली तक चढ़ा है।तभी तो इसमेें राहुल -माया कें ंबीच की सियासी जंग रांेज नये सिरे से आगे बढ़ा रही है। इस राजनीतिक शह मात में अपने स्तर समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी चैतरफा बनाने मंे जुटी है। हालाकि समाजवादी पार्टी की हैसियत इस राज्य में क्या है यह किसी से छुपा नही है। बावजूद इसके मीडिया की तबज्जो राहुल और माया के जुवानी जंग में ज्यादा है।तभी तो समाजवादी पार्टी कनटेस्ट में होते हुए भी मीडिया के नजरो से ओझल है।तो बीजेपी 1990 वाली हालात मे आने के लिए राजनाथ सिंह और उमा भारती को आगे किया है।यही सियासी सरगर्मी इस राज्य के राजनीतिक तापमान को परवान चढ़ा रही है। इसके जद में कोई और नही यहां लेाग है जो इनके राजनीतिक जमीन में उगने वाले फसल है।

कहते है राजनीति का अपना मिजाज होता है। वक्त और हालात के जरिये राजनीति की दिशा होती है।लेकिन आप इसे क्या कहेेंगे, जब किसी राष्ट्रपुरोधा को लेकर दो बडी सियासी पार्टी मैदान में महज इसलिए कुद पडें कि वो राष्ट्र के नही, किसी पार्टी विशेष के अवतार है। ये खेल तब और दिलचस्प हो जाता है, जब इसको लेकर एक पार्टी नही कई पार्टिया सियासी रोटी सेकने के लिए खुद को आगे कर ले। मायावती अपनी सियासत जमीन पर खतरा मंडराते देख, राहुल के खेल को बिगाडने मंे कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहती। बावजूद इसके पहली बार उन्हे डर जरूर हो गया कि ये खेल उतना आसान भी नही है, जितना वो समझने की भूल कर रही है। लखनऊ के अंबेड़कर मैदान में कांग्रसी युवराज की रैली मायावती के एकलौती दलित लीडर के तौर पर कायम अपनी पहचान पर गर्व करने की उनकी अदा पर चिंता की लकीर खीच दी है। चिंता ऐसी, कि जिस अंबेड़कर के जरिये उन्हेंाने देश में जों दलित नेत्री के तौर पर पहचान बनायी है ,उस पहचान पर संकट के बादल उमरने ध्ुामरने शुरू हो चुके है।

राजनीतिक कैरियर में पहली बार मायावती इनती डरी सहमी दिख रही है।आलम यह है कि उन्हें अपने कार्यकर्ताओं पर से भी भरोसा उठ गया।नही तो वो, क्यों हवाई सर्वेझण के जरियें अपने वफादारेां की कार्यशैली पर नुक्ता चीनी करती ।मायावती सार्वजनिक मंच पर जितनी बडी़ बड़ी बाते करे। उन्हे भी इस बात का भलीभांति एहसास है, कि राहुल गांघी का दलितो के घर रात गुजारना मायावती की रात का नींद हराम किये हुए है। राहुल गांघी इतने भर से रूक जाते, तो मायावती की मुश्किले थोडी कम हो जाती । लेकिन राहुल है कि मायावती के दलित कार्ड में चुनचुन कर पलीता लगा रहे है। दलित सरकार में दलितो को न्याय दिलाने में दलित सरकार यानी मायावती नही राहुल अपनी भुमिका अदा कर रहे है।राहुल उन पीडित परिवार के लिए सबसे आगंे खडे नजर आ रहे है, जिनपर माया की माया का छाव नही पड रहा।राहुल गांघी इसी को बड़ी चालाकी से न सिर्फ उजागर कर रहे है बल्कि पीडित परिवार की मदद कर मायावती के दलितप्रेम की हवा भी निकाल रहे है।

यूपी में माया- राहुल का जंग दिन व दिन चिलचस्प होता जा रहा है।इसमें रंेफरी की भुमिका में समाजवादी अपना किरदार ढुंढ़ने में लगी है।रेफरी तो रेफरी ठहरे। वो मैदान पर उतरकर मैच खेलने से रहे, सेा बाहर बैठकर ही दोनो टीमों के हारने के सपने सजा रहे है। लेकिन ये खेल ऐसा है जिसमें दोनेां टीम एकसाथ हारने से रही। हां, ये जरूर हो सकता है, कि मैच ड्रा पर छुट जाए। साईकिल सवार इस पार्टी की मुसीबत ये हेै कि मैच ड्रा होने भर से मुलायम की मुसीबत कम नही हो सकती।पार्टी को ये समझ में नही आ रहा कि वो रेफरी होते हुए भी कैसे इस मुकाबलें मंे खुद को मैदान में खड़ा होकर मुकाबले को तीनतरफा बनाए। राजनीति वोट बैंक के जरिये होती है।मुलायम का अपने परिवार के प्रति कुछ ज्यादा मुलायम होना भाडी पर रहा है। बहु डिम्पल फिरोजपुर से लोकसभा का उपचुनाव क्या हारी,पार्टी का आंतरिक कहल घर से सड़क पर गया ।रही सही कसर अमर-मुलायम के बीच याराना टूटने से पुरी हो गयी। और इस याराना का असर राजपुत वोट बैंक में संेह तय है। ये महज संयोग भर नही है कि जो मुलायम सिंह यादव मुस्लिम वोट बैंक पर सवार होकर अब तक चुनावी बैतरनी पार करते रहे,वो किस कदर दरक गया है इसका अंदाजा मुलायम एंड कंपनी को लोकसभा चुनाव में हो ही गया है। अब तो इनकी हालत ये हो गयी है, कि माई यानी मुस्लिम -यादव वोट बैंक अब इनके लिए इतिहास है।ये हम सब जानते है कि राजनीति इतिहास के जरियें नही वर्तमान के जरिये होती है।वर्तमान इनका जगजाहिर है।

रही बात बीजेपी की तो जिस बीजेपी ने उत्तर प्रदेश के सियासत के बल पर केंद की राजनीति में अपनी पहली भुमिका तलाश करने मंे सफल रही थी, वो बीजेपी आज इसी प्रदेश में अपनी खोयी हुयी जमीन तलाश रही है। वो भी बिना सवार के।पार्टी के पास इस राज्य में सियासत की गाड़ी को चलाने के लिए चेहरे तलाशने का अभियान चल रहा है।वो चेहरा जरूरी नही कि यूपी का ही हो।तभी तो उमा भारती को पार्टी में वापस लाकर यूपी का सियासत सौपा गया है।ये वही उमा भारती है जो कभी बीजेपी के एकलौता राष्ट्रीय महिला नेत्री का खिताब हासिल था ।मघ्य प्रदेश में खास राजनीति दखल रहती थी और बाद में इस राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का खिताब भी मिला। बाद में पार्टी से न सिर्फ अपनी कुर्सी गवानी पडी ,पार्टी से भी बेदखल कर दी गयी।नयी पार्टी बनाने के बाद अपने समर्थको को चुनाव जीताना तो दूर खुद ही चुनाव हार गयी। उसी उमा भारती को मायावती की सियासी जमीन पर बीजेपी अपना फसल उगाने की फिराक में है।ऐसे में बीजेपी की उत्तर प्रदेश में मौजूदा राजनीतिक हैसियत का आभास तो हो ही जाता है।

माया- राहुल,मुलायम,कल्याण सिंह और उमा भारती के बीच सत्ता की ये जंग जितनी तेज होगी,उतनी ही तेजी से जातिय धुर्वीकरण का चेहरा भी देखने को मिलेगा। लेकिन ये वोट बैंक में तब्दील हो, ऐसा कमसे कम इतिहास की समझ रखने वाले लेाग शायद ही सहमत हो पाए। लगता है साल 2012 के विधानसभा के चुनाव के लिए जिस तरह माया और राहुल का दलित राजनीति उत्तर प्रदेश में जारी हैे उसका तो ये रिर्हसल भर है बहुत कुछ होना बाकी है। इस जोर अजमाईस में आम आदमी तो महज इनके सियासी सेज भर है।






Jul 20, 2011

आजाद भारत के 64 साल

भारत की आजादी के 64 साल बीत चुके हैं। आजादी के इस सफर पर बहस का दौर भी शुरू है कि आखिर इन वर्षों में हमने क्या पाया और क्या खोया। विश्व के सबसे बडें लोकतांत्रिक राष्ट्र से कहां कहां गलती हुयी । मैंने इन ही 64 वर्षों का लेखा जोखा आप पाठको के सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं।

स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1929 मंे लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था, कि जब दुनिया नींद की गोद में होगी तो भारत नयी आजादी और स्वतंत्रता मंे प्रवेश करेगा। आखिरकार भारत और नेहरू का सपना 15 अगस्त 1947 को पूरा हो गया। लेकिन सवाल ये है कि क्या वो सपना पूरा हुआ जो आजादी के समय हमारे राष्ट्रनिर्माताआंे ने देखी थी ।

आज ये तथ्य किसी से छुपा नहीं की इस आजादी को हासिल करने के लिए कितने माताओं ने अपनी कोख सुनी कर दी । लेकिन स्वतंत्र भारत की खुशहाली के लिए राष्ट्रनिर्माताओ ने जो तानाबाना बुना गया वो कहंा तक सफल रहा । यही वो सवाल है जो आज की युवा पीढ़ी जानना चाहती है ।

किसी भी मुल्क के इतिहास में 64 साल का सफर कम नहीं होता । भारत ने इन वरसों में लंबी दूरी तय की है । भारतीयों का जलवा भारत में ही नहीं , बल्कि दुनिया के दुसरे देशों मंे भी जारी है या यूं कहें की भारतीयों के ताल पर सफलता का शो जारी है । हिन्दुस्तान की साख में भी काफी इजाफा हुआ है कल तक जहां हमारी पूछ तीसरी दुनिया के मुल्क तक सीमित था वही आज भारत वश्व के सबसे शक्तिशाली संगठन जी- 8 में बतौर सलाहकार का दर्जा रखता है। यही नहीं पुरे विश्व में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बज रहा है। भारतीय इंजीनियरों के इंतजार में अमेरिका से ले कर ब्रिटेन तक पावरे पलक बिछाए रहते हैं। और ये रूतबा भारत और भारतवासियों को यूं ही नहीं मिले हैं। इसके लिए हमने खास जतन किए हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा के दौर में भारतीयों ने अपनी प्रतिभा के बल पर सफलता हासिल की है। लक्ष्मीनिवास मित्तल दुनिया के पांच सबसे समृद्ध लोगों की सूची में शामिल हैं। उनकी सफलता का आलम यह है कि उनकी कंपनी के सफलता व असफलता पर यूरोप के शेयर बाजार का सूचकांक तय होता है। वो इकलौते ऐसे भारतीय नहीं हैं जो विदेशों में सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं। बाॅवी जिंदल से ले कर सलमान रूश्दी और सुब्रह्यमण्यम चंद्रशेखर से ले कर सुनीता विलियम्स तक, हजारों नाम हैं जो विदेशों में रह कर भी भारतवासी कहलाने पर फक्र महसूस करते हैं। भारतीयों की सफलता ही है कि विश्व के कई देशों की अर्थव्यवस्था के विकास में अहम योगदान है।

वही भारत में इन सालों में सैकड़ों करोड़पति बने और वह भी खांटी मेहनत से। इन्हीें में से चर्चित नाम मुकेश और अनिल अंबानी, रतन टाटा, आदित्य बिड़ला जैसे मशहूर नाम हैं। तो दूसरी तरफ भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में रोज नए नए सफलता के झंडे गाड़ रहा हैं। आज भारत को परमाणु संपन्न देशों की श्रेणी में छठा स्थान हासिल है। इतना ही नहीं, भारत को एशिया के सुपर पाॅवर के तौर पर दुनिया देखती है।

जहां आजादी के समय भारतवासी को खाद्यान्न के लिए दूसरे मुल्कों पर मोहताज होना पड़ता था, आज भारत इसमें आत्मनिर्भर है। तकनीकि तौर पर हम कितने सझम है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि लड़ाकू विमान से ले कर लंबी दूरी के मिसाइल आज मुल्क में ही तैयार हो रहे है।

इन सबके बीच बाॅलीवुड और सचिन तेंडुलकर की बात न हो तो फिर 64 साल का इतिहास अधूरा मालूम पड़ता है। बाॅलीवुड की थाप पर पूरी दुनिया झूमती है। बाॅलीवुड के कई डायरेक्टर और फिल्म अभिनेता हाॅलीवुड में धूम मचा चुके हैं। वहीं भारत का राष्ट्रीय खेल तो हाॅकी है लेकिन भारतीयों की आत्मा क्रिकेट में बसती है । जी हंा अगर देश में क्रिकेट मजहब है तो सचिन तंेडुलकर अधोषित देवता है। हमारे देश में वो एकलौते ऐंसे शख्स है जिनके हर शाॅट पर पुरा भारत उनकी ही ताल पर नाचता है। और वो आउट हो जाते है तो भारतवासियों को लकवा मार जाता है। हमारे देश में एकलौते ऐसे शख्स है जिनके चैक छक्के पर भारतवासी ही नहीं बल्कि अलगाववादी संगठन भी झुमने लगते है।

लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है, और दूसरे पहलू के बारे में बताये बिना कहानी तो अधूरी ही रहेगी ना। आज़ादी के बाद के बरसों में देश की जनसंख्या में तिगुना से भी ज्यादा इजाफा हुआ है । इन 64 बरसों में राष्ट्रपिता महात्मा गंाधी का सपना मुल्क के हर चैराहे पर दम तोड़ रहा है। और इसकी बुनियाद में वो लोग है जिन्हें देश को समृद्ध् िकी राह पर ले जाने का बागड़ोर सौपा गया है।बात चाहे विधायिका की हो, या कार्यपालिका की, या फिर न्यायपालिका की। अपनी जिम्मेदारी को पुरी ईमानदारी से निभाने में विफल ही साबित हुए है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी भी मुल्क की समृद्धि की राह सियासत की पतली गली से निकलती है। लेकिन आज भारत का पूरा राजनीतिक तंत्र पर से अवाम का भरोसा डगमग सा गया है। आज राजनेता और अपराधियों के बीच ऐसा गठजोड़ तैयार हो गया है। जो मुल्क के लिए ख़तरे की घंटी है। यानि जिन अपराधियों को राजनेताओं द्वारा जेल का दरवाजा दिखाया जाना चाहिए। आज वही नेता उनकी आवभगत करने में जुटे है। इसे बदले हुए सियासत का दौर है जिसमें अपराधी और राजनेता एक साथ एक ही कालकोठरी में बंद हैै। इसका पुरा श्रेय सुप्रीम कोर्ट को जाता है।मौजूदा दौर में राष्ट्र सेवा के नाम पर अपराध तंत्र हावी होने लगा है।

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के नाम पर गोलीतंत्र और बंदूकतंत्र हावी होता जा रहा है। बैलेट पर बुलेट का प्रभाव साफ साफ दिखाई पड़ रहा है। देश में अलगाववादी संगठन सिर उठा चुके है। उतर पूर्व के कई राज्यों में अलगाववादी संगठन भारत के खिलाफ़ मोर्चा खोले हुए है। और इसका खामियाजा आम शहरियों को भुगतना पड़ रहा है। इतना ही नहीं देश के 14 राज्य में 280 जिले नक्सलवाद की मार झेल रहे है। यानि मुल्क पर कुछ हद तक अराजकतावादी तत्व हावी होने की फिराक में है। यू कहे गांधी का देश अपनों से लड़ने में उलझा है। इन सभी चीजों के लिए कही न कही हमारा राजनीतिक तंत्र जिम्मेदार है। वरना कोई कारण नहीं की दुनिया में अपने को धर्मनिरपेक्षता का पैरोकार कहने वाले भारत में दंगों को इतिहास नहीं होता।दिल्ली, मुम्बई और गुजरात के दंगे किसी से छिपे नहीं है। भ्रष्टाचार ने तो पूरे मुल्क को जकड़ लिया है। यह कितना गंभीर है इसका अदंाजा आप इस बात से लगा सकते है कि पिछले दो दशक में मुल्क के खजाने का 15लाख करोड ़कालेघन के तौर पर विदेशी बैकों में जमा है।लेकिन हमारा राजनीतिक नेत्त्व इसका समाधान ढूंढने की बजाए इसमें लिप्त लोगांे का संरक्षण करने मंे जुटी हुई है।


जाति के नाम पर आरक्षण और उसके नाम पर राजनीति का गंदा खेल शायद भारत के बाहर किसी भी मुल्क में शायद ही देखने को मिले। आरक्षण के सियासी खेल ने देश में जाति के नाम पर अलगाव पैदा कर दिया है। इतना ही नहीं सबसे चैकने वाली बात ये है कि जिन लोगों के नाम पर आरक्षण की राजनीति हो रही है, उसमें से 80 फीसदी से ज्यादा लोग तो ये भी नहीं जानते की आरक्षण होता क्या है। क्योंकि इन लोगों को दो जून की रोटी भी दिन भर की मेहनत के बाद नसीब नहीं होता। ऐसे लोग आरक्षण में रोटी की जुगत चाहते है लेकिन इनके आका तो इनके भी हिस्से की रोटी राजनीति के नाम पर डकार जा रहे है।

125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में 60 करोड़ लोग रोजाना 100 रूपये भी नही कमा पाते। लगभग 65 फीसदी आबादी कृर्षि पर निर्भर है। और 75 फीसदी आबादी ने तो शहर की सूरत तक नहीं देखी है। जाहिर है जहां एक तरफ देश में औधोगिकीकरण की बात हो रही है। सूचना तंत्र का दौर चल रहा है। वहीं मुल्क की 60 फीसदी आबादी बाजारवाद से कोसो दूर खड़ी अपने आशियाने की तलाश में है। जहां शहरों में तेज रतार से सड़को का जाल बुना जा रहा है, तो वही नई नई लग्जरी गाडि़यों का जलवा लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। वहीं भारत के आधी से ज्यादा आबादी बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली से महरूम है। क्या यही गांधी का ग्रामीण भारत है जिसका सपना उन्होंने देखा था। यानि एक तरफ भारत में अरबपतियों की तादाद में रोज नए इजाफे हो रहे है वहीं ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढांचा तक नहीं है।

महात्मा गांधी के देश में गांधी का सपना ही 64 बरसों से अधूरा है। उन्होंने कहा था कि भारत गांव में बसता है। भारत गांवो का देश है। आज गांधी के गांव का हालत किसी से छुपा नहीं।

देश के कर्णधारों से यह जरूर पुछा जाना चाहिए की आखिर इतने बरसो में राष्ट्रपिता का सपना साकार क्यों नहीं हो सका? क्या इन राजनेताओं को सिर्फ 2 अक्तूबर जिसे राष्ट्र गांधी जयंती के तौर पर मनाता है का काम सिर्फ गांधी जी की समाधि पर मल्यार्पण करने भर से ही उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती। क्या धन्ना सेठों और उद्योगपतियों को शहरों के बजाय गांवों की ओर रूख नहीं करना चाहिए जहां राश्ट्रपिता का आत्मा बसता है।

जाहिर है राजनेता से ले कर पत्रकार तक और आम जनता अपनी ईमानदारी और सजगता से जब तक अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम तक नहीं पहुंचाएंगे तब तक देश में खुशहाली की लकीर खीचने में कामयाबी मिलने से रही।