Jul 20, 2011

आजाद भारत के 64 साल

भारत की आजादी के 64 साल बीत चुके हैं। आजादी के इस सफर पर बहस का दौर भी शुरू है कि आखिर इन वर्षों में हमने क्या पाया और क्या खोया। विश्व के सबसे बडें लोकतांत्रिक राष्ट्र से कहां कहां गलती हुयी । मैंने इन ही 64 वर्षों का लेखा जोखा आप पाठको के सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं।

स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1929 मंे लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था, कि जब दुनिया नींद की गोद में होगी तो भारत नयी आजादी और स्वतंत्रता मंे प्रवेश करेगा। आखिरकार भारत और नेहरू का सपना 15 अगस्त 1947 को पूरा हो गया। लेकिन सवाल ये है कि क्या वो सपना पूरा हुआ जो आजादी के समय हमारे राष्ट्रनिर्माताआंे ने देखी थी ।

आज ये तथ्य किसी से छुपा नहीं की इस आजादी को हासिल करने के लिए कितने माताओं ने अपनी कोख सुनी कर दी । लेकिन स्वतंत्र भारत की खुशहाली के लिए राष्ट्रनिर्माताओ ने जो तानाबाना बुना गया वो कहंा तक सफल रहा । यही वो सवाल है जो आज की युवा पीढ़ी जानना चाहती है ।

किसी भी मुल्क के इतिहास में 64 साल का सफर कम नहीं होता । भारत ने इन वरसों में लंबी दूरी तय की है । भारतीयों का जलवा भारत में ही नहीं , बल्कि दुनिया के दुसरे देशों मंे भी जारी है या यूं कहें की भारतीयों के ताल पर सफलता का शो जारी है । हिन्दुस्तान की साख में भी काफी इजाफा हुआ है कल तक जहां हमारी पूछ तीसरी दुनिया के मुल्क तक सीमित था वही आज भारत वश्व के सबसे शक्तिशाली संगठन जी- 8 में बतौर सलाहकार का दर्जा रखता है। यही नहीं पुरे विश्व में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बज रहा है। भारतीय इंजीनियरों के इंतजार में अमेरिका से ले कर ब्रिटेन तक पावरे पलक बिछाए रहते हैं। और ये रूतबा भारत और भारतवासियों को यूं ही नहीं मिले हैं। इसके लिए हमने खास जतन किए हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा के दौर में भारतीयों ने अपनी प्रतिभा के बल पर सफलता हासिल की है। लक्ष्मीनिवास मित्तल दुनिया के पांच सबसे समृद्ध लोगों की सूची में शामिल हैं। उनकी सफलता का आलम यह है कि उनकी कंपनी के सफलता व असफलता पर यूरोप के शेयर बाजार का सूचकांक तय होता है। वो इकलौते ऐसे भारतीय नहीं हैं जो विदेशों में सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं। बाॅवी जिंदल से ले कर सलमान रूश्दी और सुब्रह्यमण्यम चंद्रशेखर से ले कर सुनीता विलियम्स तक, हजारों नाम हैं जो विदेशों में रह कर भी भारतवासी कहलाने पर फक्र महसूस करते हैं। भारतीयों की सफलता ही है कि विश्व के कई देशों की अर्थव्यवस्था के विकास में अहम योगदान है।

वही भारत में इन सालों में सैकड़ों करोड़पति बने और वह भी खांटी मेहनत से। इन्हीें में से चर्चित नाम मुकेश और अनिल अंबानी, रतन टाटा, आदित्य बिड़ला जैसे मशहूर नाम हैं। तो दूसरी तरफ भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में रोज नए नए सफलता के झंडे गाड़ रहा हैं। आज भारत को परमाणु संपन्न देशों की श्रेणी में छठा स्थान हासिल है। इतना ही नहीं, भारत को एशिया के सुपर पाॅवर के तौर पर दुनिया देखती है।

जहां आजादी के समय भारतवासी को खाद्यान्न के लिए दूसरे मुल्कों पर मोहताज होना पड़ता था, आज भारत इसमें आत्मनिर्भर है। तकनीकि तौर पर हम कितने सझम है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि लड़ाकू विमान से ले कर लंबी दूरी के मिसाइल आज मुल्क में ही तैयार हो रहे है।

इन सबके बीच बाॅलीवुड और सचिन तेंडुलकर की बात न हो तो फिर 64 साल का इतिहास अधूरा मालूम पड़ता है। बाॅलीवुड की थाप पर पूरी दुनिया झूमती है। बाॅलीवुड के कई डायरेक्टर और फिल्म अभिनेता हाॅलीवुड में धूम मचा चुके हैं। वहीं भारत का राष्ट्रीय खेल तो हाॅकी है लेकिन भारतीयों की आत्मा क्रिकेट में बसती है । जी हंा अगर देश में क्रिकेट मजहब है तो सचिन तंेडुलकर अधोषित देवता है। हमारे देश में वो एकलौते ऐंसे शख्स है जिनके हर शाॅट पर पुरा भारत उनकी ही ताल पर नाचता है। और वो आउट हो जाते है तो भारतवासियों को लकवा मार जाता है। हमारे देश में एकलौते ऐसे शख्स है जिनके चैक छक्के पर भारतवासी ही नहीं बल्कि अलगाववादी संगठन भी झुमने लगते है।

लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है, और दूसरे पहलू के बारे में बताये बिना कहानी तो अधूरी ही रहेगी ना। आज़ादी के बाद के बरसों में देश की जनसंख्या में तिगुना से भी ज्यादा इजाफा हुआ है । इन 64 बरसों में राष्ट्रपिता महात्मा गंाधी का सपना मुल्क के हर चैराहे पर दम तोड़ रहा है। और इसकी बुनियाद में वो लोग है जिन्हें देश को समृद्ध् िकी राह पर ले जाने का बागड़ोर सौपा गया है।बात चाहे विधायिका की हो, या कार्यपालिका की, या फिर न्यायपालिका की। अपनी जिम्मेदारी को पुरी ईमानदारी से निभाने में विफल ही साबित हुए है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी भी मुल्क की समृद्धि की राह सियासत की पतली गली से निकलती है। लेकिन आज भारत का पूरा राजनीतिक तंत्र पर से अवाम का भरोसा डगमग सा गया है। आज राजनेता और अपराधियों के बीच ऐसा गठजोड़ तैयार हो गया है। जो मुल्क के लिए ख़तरे की घंटी है। यानि जिन अपराधियों को राजनेताओं द्वारा जेल का दरवाजा दिखाया जाना चाहिए। आज वही नेता उनकी आवभगत करने में जुटे है। इसे बदले हुए सियासत का दौर है जिसमें अपराधी और राजनेता एक साथ एक ही कालकोठरी में बंद हैै। इसका पुरा श्रेय सुप्रीम कोर्ट को जाता है।मौजूदा दौर में राष्ट्र सेवा के नाम पर अपराध तंत्र हावी होने लगा है।

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के नाम पर गोलीतंत्र और बंदूकतंत्र हावी होता जा रहा है। बैलेट पर बुलेट का प्रभाव साफ साफ दिखाई पड़ रहा है। देश में अलगाववादी संगठन सिर उठा चुके है। उतर पूर्व के कई राज्यों में अलगाववादी संगठन भारत के खिलाफ़ मोर्चा खोले हुए है। और इसका खामियाजा आम शहरियों को भुगतना पड़ रहा है। इतना ही नहीं देश के 14 राज्य में 280 जिले नक्सलवाद की मार झेल रहे है। यानि मुल्क पर कुछ हद तक अराजकतावादी तत्व हावी होने की फिराक में है। यू कहे गांधी का देश अपनों से लड़ने में उलझा है। इन सभी चीजों के लिए कही न कही हमारा राजनीतिक तंत्र जिम्मेदार है। वरना कोई कारण नहीं की दुनिया में अपने को धर्मनिरपेक्षता का पैरोकार कहने वाले भारत में दंगों को इतिहास नहीं होता।दिल्ली, मुम्बई और गुजरात के दंगे किसी से छिपे नहीं है। भ्रष्टाचार ने तो पूरे मुल्क को जकड़ लिया है। यह कितना गंभीर है इसका अदंाजा आप इस बात से लगा सकते है कि पिछले दो दशक में मुल्क के खजाने का 15लाख करोड ़कालेघन के तौर पर विदेशी बैकों में जमा है।लेकिन हमारा राजनीतिक नेत्त्व इसका समाधान ढूंढने की बजाए इसमें लिप्त लोगांे का संरक्षण करने मंे जुटी हुई है।


जाति के नाम पर आरक्षण और उसके नाम पर राजनीति का गंदा खेल शायद भारत के बाहर किसी भी मुल्क में शायद ही देखने को मिले। आरक्षण के सियासी खेल ने देश में जाति के नाम पर अलगाव पैदा कर दिया है। इतना ही नहीं सबसे चैकने वाली बात ये है कि जिन लोगों के नाम पर आरक्षण की राजनीति हो रही है, उसमें से 80 फीसदी से ज्यादा लोग तो ये भी नहीं जानते की आरक्षण होता क्या है। क्योंकि इन लोगों को दो जून की रोटी भी दिन भर की मेहनत के बाद नसीब नहीं होता। ऐसे लोग आरक्षण में रोटी की जुगत चाहते है लेकिन इनके आका तो इनके भी हिस्से की रोटी राजनीति के नाम पर डकार जा रहे है।

125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में 60 करोड़ लोग रोजाना 100 रूपये भी नही कमा पाते। लगभग 65 फीसदी आबादी कृर्षि पर निर्भर है। और 75 फीसदी आबादी ने तो शहर की सूरत तक नहीं देखी है। जाहिर है जहां एक तरफ देश में औधोगिकीकरण की बात हो रही है। सूचना तंत्र का दौर चल रहा है। वहीं मुल्क की 60 फीसदी आबादी बाजारवाद से कोसो दूर खड़ी अपने आशियाने की तलाश में है। जहां शहरों में तेज रतार से सड़को का जाल बुना जा रहा है, तो वही नई नई लग्जरी गाडि़यों का जलवा लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। वहीं भारत के आधी से ज्यादा आबादी बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली से महरूम है। क्या यही गांधी का ग्रामीण भारत है जिसका सपना उन्होंने देखा था। यानि एक तरफ भारत में अरबपतियों की तादाद में रोज नए इजाफे हो रहे है वहीं ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढांचा तक नहीं है।

महात्मा गांधी के देश में गांधी का सपना ही 64 बरसों से अधूरा है। उन्होंने कहा था कि भारत गांव में बसता है। भारत गांवो का देश है। आज गांधी के गांव का हालत किसी से छुपा नहीं।

देश के कर्णधारों से यह जरूर पुछा जाना चाहिए की आखिर इतने बरसो में राष्ट्रपिता का सपना साकार क्यों नहीं हो सका? क्या इन राजनेताओं को सिर्फ 2 अक्तूबर जिसे राष्ट्र गांधी जयंती के तौर पर मनाता है का काम सिर्फ गांधी जी की समाधि पर मल्यार्पण करने भर से ही उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती। क्या धन्ना सेठों और उद्योगपतियों को शहरों के बजाय गांवों की ओर रूख नहीं करना चाहिए जहां राश्ट्रपिता का आत्मा बसता है।

जाहिर है राजनेता से ले कर पत्रकार तक और आम जनता अपनी ईमानदारी और सजगता से जब तक अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम तक नहीं पहुंचाएंगे तब तक देश में खुशहाली की लकीर खीचने में कामयाबी मिलने से रही।

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