Jul 22, 2011

क्या राहुल बिगाड़ पाएंगे ‘‘माया’’ का खेल




उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सियासी जमीन तैयार करने में जुटे राहुल गांधी कितने सफल हो पाएंगे? माया और राहुल के दलित प्रेम पर नुरा कुश्ती तो लंबे समय से चल रही थी, जिसमें कभी राहुल आगेे निकलते रहे है, तो कभी मायावती। राहुल के दलित प्रेम का माखौल उडाकर खुद को विजेता साबित करने का वो कोई मौका नही गवाया। लेकिन जिस तरह से पिछले दिनों राहुल गांधी ने पहले पदयात्रा करके तो दूसरी तरफ अलीगढ़ में किसानों की महापंचायत कर कांग्रेसी युवराज ने दलित वोट बैंक के साथ किसानों के वेाट पर बट्टा लगाने में जुटे है।लेकिन राज्य में चुनाव के अभी 7 महीने से ज्यादा का वक्त वाकी है। इसमें देखना यह दिलचस्प होगा कि राहुल गांधी मायावती का कितना खेल बिगाड़ पाते है।

देश के कंेद्रीय सत्ता में खास दखल रखने वाले इस राज्य की राजनीतिक तापमान आज कल लखनऊ से दिल्ली तक चढ़ा है।तभी तो इसमेें राहुल -माया कें ंबीच की सियासी जंग रांेज नये सिरे से आगे बढ़ा रही है। इस राजनीतिक शह मात में अपने स्तर समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी चैतरफा बनाने मंे जुटी है। हालाकि समाजवादी पार्टी की हैसियत इस राज्य में क्या है यह किसी से छुपा नही है। बावजूद इसके मीडिया की तबज्जो राहुल और माया के जुवानी जंग में ज्यादा है।तभी तो समाजवादी पार्टी कनटेस्ट में होते हुए भी मीडिया के नजरो से ओझल है।तो बीजेपी 1990 वाली हालात मे आने के लिए राजनाथ सिंह और उमा भारती को आगे किया है।यही सियासी सरगर्मी इस राज्य के राजनीतिक तापमान को परवान चढ़ा रही है। इसके जद में कोई और नही यहां लेाग है जो इनके राजनीतिक जमीन में उगने वाले फसल है।

कहते है राजनीति का अपना मिजाज होता है। वक्त और हालात के जरिये राजनीति की दिशा होती है।लेकिन आप इसे क्या कहेेंगे, जब किसी राष्ट्रपुरोधा को लेकर दो बडी सियासी पार्टी मैदान में महज इसलिए कुद पडें कि वो राष्ट्र के नही, किसी पार्टी विशेष के अवतार है। ये खेल तब और दिलचस्प हो जाता है, जब इसको लेकर एक पार्टी नही कई पार्टिया सियासी रोटी सेकने के लिए खुद को आगे कर ले। मायावती अपनी सियासत जमीन पर खतरा मंडराते देख, राहुल के खेल को बिगाडने मंे कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहती। बावजूद इसके पहली बार उन्हे डर जरूर हो गया कि ये खेल उतना आसान भी नही है, जितना वो समझने की भूल कर रही है। लखनऊ के अंबेड़कर मैदान में कांग्रसी युवराज की रैली मायावती के एकलौती दलित लीडर के तौर पर कायम अपनी पहचान पर गर्व करने की उनकी अदा पर चिंता की लकीर खीच दी है। चिंता ऐसी, कि जिस अंबेड़कर के जरिये उन्हेंाने देश में जों दलित नेत्री के तौर पर पहचान बनायी है ,उस पहचान पर संकट के बादल उमरने ध्ुामरने शुरू हो चुके है।

राजनीतिक कैरियर में पहली बार मायावती इनती डरी सहमी दिख रही है।आलम यह है कि उन्हें अपने कार्यकर्ताओं पर से भी भरोसा उठ गया।नही तो वो, क्यों हवाई सर्वेझण के जरियें अपने वफादारेां की कार्यशैली पर नुक्ता चीनी करती ।मायावती सार्वजनिक मंच पर जितनी बडी़ बड़ी बाते करे। उन्हे भी इस बात का भलीभांति एहसास है, कि राहुल गांघी का दलितो के घर रात गुजारना मायावती की रात का नींद हराम किये हुए है। राहुल गांघी इतने भर से रूक जाते, तो मायावती की मुश्किले थोडी कम हो जाती । लेकिन राहुल है कि मायावती के दलित कार्ड में चुनचुन कर पलीता लगा रहे है। दलित सरकार में दलितो को न्याय दिलाने में दलित सरकार यानी मायावती नही राहुल अपनी भुमिका अदा कर रहे है।राहुल उन पीडित परिवार के लिए सबसे आगंे खडे नजर आ रहे है, जिनपर माया की माया का छाव नही पड रहा।राहुल गांघी इसी को बड़ी चालाकी से न सिर्फ उजागर कर रहे है बल्कि पीडित परिवार की मदद कर मायावती के दलितप्रेम की हवा भी निकाल रहे है।

यूपी में माया- राहुल का जंग दिन व दिन चिलचस्प होता जा रहा है।इसमें रंेफरी की भुमिका में समाजवादी अपना किरदार ढुंढ़ने में लगी है।रेफरी तो रेफरी ठहरे। वो मैदान पर उतरकर मैच खेलने से रहे, सेा बाहर बैठकर ही दोनो टीमों के हारने के सपने सजा रहे है। लेकिन ये खेल ऐसा है जिसमें दोनेां टीम एकसाथ हारने से रही। हां, ये जरूर हो सकता है, कि मैच ड्रा पर छुट जाए। साईकिल सवार इस पार्टी की मुसीबत ये हेै कि मैच ड्रा होने भर से मुलायम की मुसीबत कम नही हो सकती।पार्टी को ये समझ में नही आ रहा कि वो रेफरी होते हुए भी कैसे इस मुकाबलें मंे खुद को मैदान में खड़ा होकर मुकाबले को तीनतरफा बनाए। राजनीति वोट बैंक के जरिये होती है।मुलायम का अपने परिवार के प्रति कुछ ज्यादा मुलायम होना भाडी पर रहा है। बहु डिम्पल फिरोजपुर से लोकसभा का उपचुनाव क्या हारी,पार्टी का आंतरिक कहल घर से सड़क पर गया ।रही सही कसर अमर-मुलायम के बीच याराना टूटने से पुरी हो गयी। और इस याराना का असर राजपुत वोट बैंक में संेह तय है। ये महज संयोग भर नही है कि जो मुलायम सिंह यादव मुस्लिम वोट बैंक पर सवार होकर अब तक चुनावी बैतरनी पार करते रहे,वो किस कदर दरक गया है इसका अंदाजा मुलायम एंड कंपनी को लोकसभा चुनाव में हो ही गया है। अब तो इनकी हालत ये हो गयी है, कि माई यानी मुस्लिम -यादव वोट बैंक अब इनके लिए इतिहास है।ये हम सब जानते है कि राजनीति इतिहास के जरियें नही वर्तमान के जरिये होती है।वर्तमान इनका जगजाहिर है।

रही बात बीजेपी की तो जिस बीजेपी ने उत्तर प्रदेश के सियासत के बल पर केंद की राजनीति में अपनी पहली भुमिका तलाश करने मंे सफल रही थी, वो बीजेपी आज इसी प्रदेश में अपनी खोयी हुयी जमीन तलाश रही है। वो भी बिना सवार के।पार्टी के पास इस राज्य में सियासत की गाड़ी को चलाने के लिए चेहरे तलाशने का अभियान चल रहा है।वो चेहरा जरूरी नही कि यूपी का ही हो।तभी तो उमा भारती को पार्टी में वापस लाकर यूपी का सियासत सौपा गया है।ये वही उमा भारती है जो कभी बीजेपी के एकलौता राष्ट्रीय महिला नेत्री का खिताब हासिल था ।मघ्य प्रदेश में खास राजनीति दखल रहती थी और बाद में इस राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का खिताब भी मिला। बाद में पार्टी से न सिर्फ अपनी कुर्सी गवानी पडी ,पार्टी से भी बेदखल कर दी गयी।नयी पार्टी बनाने के बाद अपने समर्थको को चुनाव जीताना तो दूर खुद ही चुनाव हार गयी। उसी उमा भारती को मायावती की सियासी जमीन पर बीजेपी अपना फसल उगाने की फिराक में है।ऐसे में बीजेपी की उत्तर प्रदेश में मौजूदा राजनीतिक हैसियत का आभास तो हो ही जाता है।

माया- राहुल,मुलायम,कल्याण सिंह और उमा भारती के बीच सत्ता की ये जंग जितनी तेज होगी,उतनी ही तेजी से जातिय धुर्वीकरण का चेहरा भी देखने को मिलेगा। लेकिन ये वोट बैंक में तब्दील हो, ऐसा कमसे कम इतिहास की समझ रखने वाले लेाग शायद ही सहमत हो पाए। लगता है साल 2012 के विधानसभा के चुनाव के लिए जिस तरह माया और राहुल का दलित राजनीति उत्तर प्रदेश में जारी हैे उसका तो ये रिर्हसल भर है बहुत कुछ होना बाकी है। इस जोर अजमाईस में आम आदमी तो महज इनके सियासी सेज भर है।






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