Jul 25, 2011

नैतिकता की सियासत

सियासत में केाई किसी का दोस्त नहीं होता और ना ही किसी का कोई दुश्मन होता है।बस वक्त के हिसाब से सियासी दोस्त और दुश्मन तात्कालिक रूप से तय किये जाते है।तभी तो खुद केा समाजवाद के सबसे बड़े पैरोकार मानने वाले मुलायम सिंह यादव के लिए अमर सिंह इनते बेगाने हो गए कि उनके नाम से ही उन्हें नफरत हो गई।पार्टी से रूकसत किया सो अलग।लेकिन सियासत की मजबूरी देखिये की अचानक मुलायम सिंह का अमर प्रेम फिर से जाग गया है।वेा भी इसलिए कि ‘‘नोट के बदले वोट’’ के मामले में अमर सिंह के साथ समाजवादी पार्टी के एक सांसद महोदय पर भी तलवार लटक रही है। ऐेेसे में समाजवादी लीडर का मुलायम होना तो बनता ही है।
वाक्या अगर मुलायम की सियासत तक सीमित रहता तो ना! लेकिन इसमंे तो हर पार्टी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुटी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदुरप्पा भले ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबे है ।लेकिन बीजेपी केा इसमें कोई बुराई नजर नहीं आ रही।यह अलग बात हेै कि कांग्रेस से बतौर नैतिकता के आधार पर हर दिन बीजेपी प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री से इस्तीफा जरूर मंाग रही है।भला नैतिकता की धुट्टी इनती सस्ती हेाती तो हमारे नेता राजनीति मंे आते ही क्यों ।राजनीति करते ही क्यों! राजनीति तो आम आदमी की भलाई के लिए की जा रही है।और इससे बढि़या आम आदमी का भला क्या हेा सकता है कि आम आदमी के नाम पर, आम आदमी केा मिलने वाले घन को, आम आदमी की तरह लुट लिया जाये।सो इस काम में हर पार्टी के नेता लगे है।बस मामला कम और ज्यादा का है।जिसको हिस्सेदारी कम मिल रही है वो दूसरे पर आरोप लगाकर नैतिकता की याद दिला रहा है। रही बात नैतिकता की तो बाजार में किलो के भाव अगर बिकता तो क्विंटल के हिसाब से खरीदकर हमारे जननेता आम आदमी कें बाट भी देतें।
इसके खरीददार के तौर पर हमारे नीतिश कुमार जी सबसे पहले होते।क्योकि उन्होंने सियासत ही नैतिकता के आधार पर किया।लेकिन जब नैतिकता की पोल खुली तेा फिर खुद दूसरे लीडरों की तरह नैतिकता का प्रसाद लेने से इनकार कर दिया। तो अगली बार हम औेर आप जब किसी को नैतिकता की याद दिलाए तेा सबसे पहले ये देख ले, कि इससे फायदा या नुकसान खुद का कितना हेा रहा है।तभी तो हम नैतिकता की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़गें।

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