Nov 16, 2013

शुक्रिया सचिन


125 करोड़ लोगों के लिए अब वो सबेरा कभी नहीं होगा जिसका इंतजार करने का आदी रहा है ये देश। सचिन के सपनो को साकार होते देखना जिस देश के लोगो की फितरत रही है, उस देश मंे अब सचिन के बिना ही सपने को साकार होते देखने की उम्मीद करना कैसा होगा, इसका कल्पना इस देश के लोग आज तो कतई नहीं कर पा रहे है।आखिर जिस देश में सपने का मतबल सचिन का सपना रहा है, उस देश में सचिन के न होने का मतलब क्या होगा, इसका एहसास तो मुम्बई के बानखेड़े से शुरू हो चुका है।क्रिकेट के मैदान पर आखिरी बार बतौर भारतीय कैप पहने तंेदूलकर के हाथो में भले ही तिरंगा लहरा रहा था, लेकिन इस तिरंगे को थामने का दिल न तो सचिन का था और न ही देश के 125 करोड़ लोगो का। तिरंगा थामने का मतलब अगर सचिन का मैदान से हमेशा के लिए विदाई होता है, तेा यह देश सचिन के हाथोे को कभी तिरंगा थामते नहीं देखना चाहेगा?

इस देश मंे तंेदूलकर होने का मतलब सिर्फ क्रिकेटर होना भर नहीं है। तंेदूलकर का मतलब उस भगवान से है जो उसके सपने को साकार करता है, उसके लिए जीता है। आनंद की हर उस अनुभूति से साक्षात्कार करवाता है, जिसकी कल्पना करके ही शरीर का रोम रोम रोमांच से भर उठता है।रोमांच की प्रकाष्ठा की सुखद अनुभूति क्या होती है, इस देश ने सचिन के जरिये जाना भी और जिया भी। वो भी पूरे 24 साल। 24 साल के इस सफर के बाद जब सचिन ने खुद इस पर विराम लगाने का फैसला बानखेड़े पर किया, तो इसका भरोसा न तो सचिन को हो रहा है और ना ही इस देश को।

आखिर हो भी क्यों ना! इस देश की नब्बे फीसदी आवादी ने महात्मा गांधी की ताकत को किताबे के जरिये जाना, उसी देश ने सचिन के कमाल को बल्ले के जरिये क्रिकेट के मैदान पर साकार होते देखा और वो भी नग्न आंखो से। आज सचिन की लोकप्रियता केे आगे गांधी का आभामंडल अगर छोटा दिखाई पड़ रहा है, तो सिर्फ इसलिए कि सचिन ने भी गांधी की तरह सियासत और उसके आस पास रहने के बावजूद उससे दूरी बना कर चलने का काम किया। आजाद भारत को एक अक्स की तालाश बरसो से थी, जिसके जरिये वो अपने जिंदगी को जीने का आदी हो और ये तलाश 15 नवम्बर 1989 को कराची मंे पुरा हुआ, जब सचिन रमेश तेंदूलकर ने कराची के मैदान पहली बार कदम रखा तो यह देशवासियो के लिए दोहरी खुशी का मोैका साबित हुआ। दुश्मन देश को उसके ही घर मंे मात देने वाला अवतार मिल गया और जिस आइकाॅन की तलाश में भारतवासी 42 साल से भटक रहे थे, वो भी पुरा हो गया। फिर क्या था सचिन का सपना खुद का सपना कभी नहीं रहा, उनके सपने को ही इस देश ने अपना सपना माना और मैदान दर मैदान सचिन की शोहरत बढ़ती गई। काबलियत निखरता गया। और देश पांच फुट 5 इंच के इस खिलाड़ी के पीछे भागता रहा। दिन, दिन न रहा और रात, रात न रही। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैैंड में मैच तड़के सुबह शुरू हो जाता तो देश भी जाग जाता, सचिन के लिए।

सचिन दुनिया के जिस मैदान पर जाते, भारत का तिरंगा उॅचा रखने के लिए खुद इसे मस्तक से लगा कर रखते, ताकि इस देश को अलग पहचान मिल सके। और हुआ भी यही। सचिन के जरिये भारत की पहचान दुनिया भर मंे बनी। उतनी जितनी की महात्मा गांधी और नेहरू के जरिये नहीं बन पायी। आज दुनिया की तीन चैथाई आबादी भारत का नाम सिर्फ इसलिए जानती है, क्योंकि सचिन हमारे हंै।

एक क्रिकेटर होेने के नाते सचिन से तो बस एक ही उम्मीद की जानी चाहिए थी कि वो मैदान पर चैके और छक्के लगाये। लेकिन, हम इससे बढ़कर उनसे उम्मीद पालने लगे। वो हमारी भावना की अभिव्यक्ति बन गए। फिर हमारी निगाहो ने उन्हें सिर्फ बल्लेबाजी तक सिमटने नहीं दिया। फिल्डिंग से लेकर बाॅलिंग तक मंे हम सिर्फ और सिर्फ सचिन का ही जलबा देखने को आतुर हो गए। विकेट से लेकर कैच तक अगर कोई और लेता, तो दिल को वो सुकून नहीं मिलता जो सचिन के जरिये पुरा होता। रही बात बल्लेबाजी की, तो वो इसी के लिए ही बने थे। सेा, जब जब, वो मैदान पर बल्ला लेकर उतरे तो दुनिया की तीन चैथाई आबादी की सांसे एक झटके मंे रूक जाती। इस इंतजार मंे कि पता नहीं क्या होगा! कई बार वो लोगो की उम्मीद को परवान चढ़ा कर वापस लोैट जाते, तो कई बार मंजिल पार भी लगा देते, तो कई बार यह काम दूसरे बल्लेबाजो पर छोड़ जाते। लेकिन, लोग तो मास्टर के जरिये ही विरोधियो को पस्त होने देखना चाहते थे। उनके खेलने के दौरान सांस कितनी बार रूक जाती, तो कितनी बार खुद को यह अहसास कराना मुश्किल होता कि हम है भी या नहीं। यहंा ‘‘है भी या नहीं’’ का मतलब सचिन के आउट होने के बाद जिंदगी और मौत से है। कुछ देर बाद ही पता चलता, कि सांस तो है, लेकिन, आस खत्म हो गयी है।

16 नवम्बर 2013 के बाद भी क्रिकेट के मैदान पर चैको और छक्को की वारिश होगी। लेकिन, लोगों की जिदंगी में वो कौतूहल अब कभी नहीं होगा जो उनके होने के एहसास भर से रोम रोम मंे होता था। अब, क्रिकेट, एक खेल होगा जिसमें जय और पराजय होगी। जिसमें जज्वात नहीं होगा, बस, एक खेल होगा और देश इस उम्मीद के साथ, इसलिए देखता रहेगा कि इस खेल को कभी तंेदूलकर ने खेला था, तो इसे यूं ही कैसे अलविदा कहे। सचिन के नाम भर होने के एहसास से क्रिकेट खिलाडि़यों के बारे न्यारे तो होंगे लेकिन सचिन का सफर अब खत्म हो गया है, क्योंकि नायक शोक के सागर में देशवासियों को  डूबो कर नये मंजिल की तलाश मंे निकल गए है।


आज देश फिर से उसी चैड़ाहे पर आ खड़ा हुआ है जहां 1948 मंे महात्मा गांधी की मौॅत के बाद नायक की तलाश मंे भटक रहा था और आज नायक के होने के बाद भी उसके न होने के फैसले से आ खड़ा हुआ है। 15 नवम्बर 2013 के बाद अब फिर से एक नायक की तलाश मंे देश निकल चुका है।यह तलाश कब पुरा होगा, कहां पुरा होगा, कैसे पुरा होगा, इसका खाका आने वाले कई महीनो तक टीवी चैनलो पर गर्मागर्म बहस का मुद्दा होगा। इन सबके बीच शून्यता में महानायक की तलाश जारी रहेगी जिसमंे देश सचिन के अक्स को ही तलाशेगा। इससे कम और इससे ज्यादा देशवासियो को कतई मंजूर नहीं होगा ।मतलब यह कि शून्य का सफर यहां से शुरू हो चुका है जिसकी न तो मंजिल पता है और न ही रास्ते का। हम भी चाहते है कि इस देश को नायक मिले जो कम से कम सचिन के आभामंडल से मेल खाता हो। अगर इसमें कामयाब रहे, तो एक बार फिर हमें जिदंगी जीने का मकसद मिल जायेगा ।










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